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बसेसर कुछ नहीं समझता

बसेसर कुछ नहीं समझता

इमेज : मालगुडी डेज : दूरदर्शन 

स्मार्टफ़ोन की पिछले साल खुली फ़ैक्टरी से बाहर आकर उसने टैक्सी पकड़ ली। आज तनख़्वाह मिली थी। इस महीने घर के लिए ज़्यादा पैसे भेजने थे। जानता था पिताजी के चेहरे पर पिछले दशकों से गिरी झुर्रियों के कैक्टस मे मुस्कान का सूरज उगेगा। पुत्र के भेजे पैसे पिता का घर नहीँ चलाते पर रिश्ते की निरंतरता के लिए आवश्यक होते हैं और सफ़ेद मूँछों को सम्बल होते हैं। माँ ज़रूर चिंता करेगी कि सब पैसे ख़र्च करेगा तो प्रायवेट नौकरी में उसके ख़ुद के बुढ़ापे का क्या होगा? उसने सोचा इस बार माँ को प्रधानमंत्री पेंशन स्कीम के बारे में ज़रूर बताएगा। कब तक माँ उसे बच्चा ही मानती रहेगी और उसके बुढ़ापे की फ़िक्र भी अपनी पीठ पर ढ़ोती रहेगी। माँ ही अपने पुत्र में आता बुढ़ापा और जाता बचपन एक साथ रूका हुआ देख सकती है। याद आया, माँ को देखे बहुत समय हो गया। मन कमज़ोर हो गया। माँ की याद से हमेशा ही ऐसा होता है, मन बालक होने के व्याकुल हो उठता है। याद आया बचपन में चूल्हे के पास बैठ पहाड़े याद करना और ममता की आत्मा को धीमे धीमे, हर रोज़, धुएँ में बुझते हुए देखना।

पिछले दो महीने से फ़ोन पर माँ की खाँसी कम और उलाहना -आशीष ज़्यादा मुखर हो गए थे। गाँव के घर में गैस लग गई थी। कई बार मन में खीझ भी आती थी कि तपेदिक के ख़िलाफ़ नेताओं की खिलखिलाती तस्वीर के पोस्टर स्वास्थ्य-केंद्रों पर साटते लोगों ने अब तक समय से पूर्व वृद्ध होती पीढ़ी की सुध क्यों नहीं ली। पोस्टर चिपका कर कर्तव्य का निर्वाह हो जाता था मानो पोस्टर पर नेता जी की तनी हुई राजसी भृकुटि देख कर ही तपेदिक गाँव में क़दम नहीं रखेगा।

मतलब बसेसर की बन आई होगी। हर शाम पराँठा भकोस रहा होगा, सोच कर उसके चेहरे पर मुस्कान खिल आई। कैशोर्य में ही लालटेन की धूप छाँह रोशनी में बसेसर का चेहरा किसी शहर के नक़्शे सा दिखता था। गाँव में तो ख़ैर अब बिजली भी थी। बसेसर पिछली बार फ़ोन पर हँस रहा था, कहा- “तुम्हारी भौजी कहती लट्टू की लैट में हमरा चेहरा फिर से जवान हो गया है।” बचपन में उसके साथ स्कूल से भागने वाला बसेसर शाम के स्कूल जाने लगा था।

माँ पिछली बार बता रही थी कि बसेसर भूमिहीन किसान होने के अभिशाप से मुक्त होकर परचून की दुकान खोल रहा था, सो भी अपनी बचत से। जब इस बारे में बसेसर से बात हुई उसकी ख़ुशी का ठिकाना ना था, बोला पिछली गर्मी में नरेगा में नहर खुदाई का पैसा मिला था। पर नरेगा में लेने देने के बाद बचत कहाँ होती थी, और बिना लिए दिए पैसा मिलता नहीं था। छोटे बड़े, भिन्न भिन्न आकार और विचार के बाबुओं को देने के बाद नरेगा में तो उतना ही पैसा आएगा जो उसे हमेशा नरेगा से बाँध के रखे। बस ज़मींदार अदृश्य हो गया था, व्यवस्था तो वही थी। उसने पैसे की मदद के लिए पूछा तो बसेसर हँसने लगा। 

बसेसर हँसा, वही जो पीपल के पत्तों से पुरबा की सरसराती हवा की आवाज़ वाली निश्छल  हँसी, बोला - ‘भैया, किसी को देना नहीं पड़ता, आधार से जोड़ दिये हैं, बस खाते में आ जाता है, फ़ोन बाबा का घंटी बजता है, और पैसा यहाँ। चिंता की कोई बात नहीं है। दू लाख मिला था, सो घर भी पक्का कर लिए हैं, इस बार आओगे तो देखना। अब बस अपना काम करना है, बाबू।'

उसे पिछले शनीवार की कनाट प्लेस के बरिस्ता में हुई ‘आधार-एक साज़िश’ सभा का ध्यान आया। लोग आए थे, जिसमें कुछ बढ़ी दाढ़ी वाले विचारमग्न युवा थे जो सिगरेट के धुएँ का आवरण ओढ़ कर अपने बौद्धिक स्तर को  और उन्नति देने में प्रयासरत थे। महिलाएँ सुंदर काटन की साड़ियों में थीं। मनुष्य की बौद्धिकता के विकास में काटन साड़ियों का भी वही स्थान है जो सिगरेट का अविष्कार का और नाई के अवकाश का। 

बहरहाल, सरकार और आधार को कोसने के साथ निजता पर मँडराते ख़तरे पर विचार हुआ। तस्वीरें खींच कर फ़ेसबुक पर डाली गईं और कैफ़े के मेम्बरशिप फ़ार्म में नाम, पता, फ़ोन, माँ का नाम, पसंदीदा रंग, जन्मतिथि इत्यादि दे कर सब हर स्तर आधार विरोध का प्रण कर के निकल गए थे। बसेसर तो ये सब कुछ समझता नहीं है। 

ठीक है कि पाँच बरस पहले बैंक वाले गुप्ता जी खाता खुलाने गए बसेसर को दरवाज़े से भगा दिए थे। और बसेसर ख़ाली हाथो में उलाहना ले कर लौट आया था- ‘बतलाईए,अब ई लोग भी खाता खुलवावेगा।’ बैंक के रामदीन चौकीदार की पान की पीक भी इस अपमान के छींटे के साथ बसेसर के लौटते पैरों पर गिरी थी। अपने मन में ‘ई लोग’ होने का बोध और अपने उजले मन पर पान की पीक का भद्दा दाग लिए बसेसर लौट आया था। 

पिछले बरस वही गुप्ता जी घर आ के, मान मनौवल और इसरार कर के खाता खुलवा गए। उस खाते से ही बसेसर समाज के गिर्द बने हाशिए के इस तरफ़ आ गया, ऋण पा कर पक्का घर बनवाया। लेकिन लोकतंत्र तो ख़तरे में है, दलित समाज तो दबा है। बसेसर तो कुछ समझता नहीं, समाज में जुड़ जाने भर से स्वाभिमान की लड़ाई थोड़े ना हो जाती है।

बसेसर से दो माह पहले बात हुई थी, बहुत चिंतित था। कहा साहूकार बाबू जो अब सरपंच हो गए थे, बुला कर कहे कि अपने समाज के लिए कुछ करो। अपने पर ख़ास बल दे कर उन्होंने यह बात कही थी, सो बसेसर भी इतना तो तो समझ पाया था कि सरपंच जी का इरादा उसे फ़ौज में भर्ती कराने या मोहल्ला सफ़ाई में शामिल करने का तो नहीं था। 

हड़बड़ी में जब फ़ोन आया था तो चिंता की लकीरें बसेसर की वाणी में ऐसी छपी थी, कि उसे फ़ोन पर ही बसेसर की दुविधा समझ आ गई थी। वो बचपन के मित्र थे, उस समय के, जब दलित, ग़ैर-दलित रेखा इतनी भी गहरी नहीं हुई थी। साथ में आम चुराए थे, और थुराए भी थे। बसेसर बोला- ‘भैया, सरपंच जी कहे एक जुलूस निकालेंगे और रामायण जलावेंगे। कहो भईया, बजरंग बली हमको माफ़ करेंगे का? बोल रहे थे हिंदू लोग हम पर अन्याय किए। हम कहा कि बाबू राम जी तो अन्याय नहीं किए, उ तो शबरी के बेर भी खाए, और केवट को भी गले लगाए। अब हम रामायण ही जला देंगे तो बचवन को रात में राम कथा नहीं का सरपंच जी की गाथा सुनाएँगे? हम मना कर दिए, भाई। पर मन बहुत ख़राब हो गया। कब तक, कौन कौन मना करेगा, पैसा देने का भी वादा कर रहे थे।'

सरपंच जी बोले दलितों का हिंदू समाज में कुछ नहीं है। कहे वही हैं जो दलितों का सम्मान करते हैं। चाय का नया चीनी मिट्टी का कप दिखाए, कहे देखो तुम्हारे सम्मान में काँच वाला गिलास जो तुम लोग के लिए रखे थे अब इतना सुन्दर कप से बदल दिए हैं। यहीं ओसारे में रहेगा घर के बाहर, तुम लोग को लिए।

‘कप तो सुन्दर था’ बसेसर बोला- ‘लेकिन का नए कप के लिए बजरंग बली से लड़ लेते। हमारे बाबा कँधा पे बैठा के रामलीला ले जाते थे, भोरे नदी किनारे हनुमान जी के मंदिर ले जाते थे। सफ़ेद कप के लिए भगवान से लड़ जाएँगे तो बच्चा सब को कल क्या बताएँगे? अब भगवान तो कहीं होगा ही जो सब दुनिया चल रहा है। उसको हम नहीं छोड़ सकते। कप सुंदर है, पर है तो ओसारे में ना, बाबू। और कुच्छो हो, बजरंग बली को धोखा नहीं दे सकते। माँ कहती थी कि उन्हीं का मन्न्त से हम हुए थे।’

प्रश्न कप का नहीं है, कप के पीछे के षड्यंत्र का है। प्रश्न भविष्य का है और इतिहास का है। प्रश्न अस्तित्व की निरंतरता का है। इस सारे समीकरण में सफ़ेद कप गौण हैं, निरर्थक हैं। कुछ पढ़ लिया होता बसेसर तो समझ लेता। लेकिन बसेसर है कि समझता ही नहीं।

उसका सिर खिड़की से टिका हुआ था और मन गाँव और शहर के बीच कहीं खड़ा था। उसकी दृष्टि अस्त होते सूरज के सामने बने नन्हें से मंदिर और उसके सामने हाथ जोड़े खड़े बसेसर-नुमा आदमी पर पड़ी।

 ग़ाज़ियाबाद पीछे छूट चुका था और नई बन रही सड़कों के बीच एक गाँव निराशा के बीच मानों नव-सम्मान का सर उठा के खड़ा था। 

गाँव के आशापूर्ण नेत्र निर्माण की धूल से निराश और व्याकुल नहीं होते। शहर के पास सहनशीलता और संवरण नहीं है। बसेसर और बसेसरनुमा लोग हनुमान जी का कोप नहीं ले सकते, शहर उन्ही बजरंगबली को लेकर कभी भी शर्मिंदा हो लेता है। शहर हर बात पर व्यापार ढूँढता है, गाँव संस्कार का संरक्षक है। शहर अख़बार पढ़ता है, गाँव संवाद स्थापित करता है। शहर शिकायत करता है, गाँव गले लगाता है। 

शहर बनती हुई सड़क के हर मोड़ पर, चौड़े फ्लाईओवर से उतर कर जाम में फँसते ही अपशब्द निकालता है, गाँव टूटी सड़क पर चलते हुए हाथ आकाश की ओर छोड़ कर कहता है- होईंही वही जो राम रची राखा। शहर साफ़ होते प्लेटफ़ार्म के कोने पर धरे कूड़े के ढेर को पेप्सी की बोतल फेंक कर सरकार को कोसता है, नव निर्माण की धूल में फँसे बसेसर को निर्विकार भाव मंदिर के आगे आँख मूँदे देख शर्मिंदा होता है। लेकिन बसेसर, बसेसर कम माँगता है, कम कोसता है। बसेसर कुछ नहीं समझता है।

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