Skip to main content

राहुल गाँधी की आधुनिक महाभारत - Rahul Gandhi's Mahabharat

Photo Courtesy: FINDLAY KEMBER/AFP/Getty Images

राहुल गाँधी की आधुनिक महाभारत 

(Below is Rahul Gandhi's Interpretation of Mahabharat)

आज से कोई १००० वर्ष पूर्व महाभारत का युद्ध हुआ। रोमिला आँटी के अनुसार क़रीब 900 AD के आस पास का काल महाभारत बताया जाता है।

महाभारत युद्ध के काल मे ‘यंग इंडिया’ के अध्यक्ष मोतीलाल वोरा अँकल सच मे युवा भारतीय थे और धृतराष्ट्र जी को युद्ध का वृतांत बताने वाले संजय के टी वी का एँटीना घुमा कर वही एडजस्ट कर रहे थे।

धृतू अँकल को कुछ नहीं दिखता था, बिल्कुल मन्नू अँकल जैसे, और उनके जीवन का उद्देश्य भी युवराज के मैच्योर होने तक सत्ता की रक्षा करना था। समस्या वहाँ भी यही थी कि लाख प्रयास करने पर भी युवराज मैच्योर ना हो पा रहे थे, और माता गाँधारी युवराज को राष्ट्र पर ठेले पड़ी थीं।

माता गाँधारी ने गाँधार से भारत  आने के बाद लगभग दशक तक भारत मे बसने के बारे मे विचार किया। गहन विचार के उपरांत उन्होंने भूरे रंग के भारतियों के उद्धार का निर्णय लिया।  मूढ़ मगज भारतीयों ने उनके उनके इक राष्ट्र का उद्धार करने के भार का निरादर कर के उन्हे सत्ता को संभालने नहीं दिया। तब जाकर राजमाता को भारतियों को अति- प्रिय त्याग का लडडू खिलाया और धृतराष्ट्र को उनके अंधेपन पे भरोसा कर के सम्राट नियुक्त किया, और वास्तविक सत्ता के निर्वहन के लिए शकुनि जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार मण्डल का गठन किया।  

समय के साथ युवराज सुयोधन, अपने पैतृक अधिकार को सुनिश्चित जान कर अपनी क्यूटता में आत्मचिन्तन के माध्यम से वृद्धि करने में जुट गए। जहाँ महाराज धृतराष्ट्र अपनी नेत्रहीन की भूमिका में सिंहासन पर सेटल हो गए, वहीं गुरू द्रोण गृह मंत्रालय और वित्त -व्यापार सँभालते, राजमाता के निर्देशानुसार दस टका प्रति डील पर राज्य चलाने मे व्यस्त हो गए।

द्रोण किसी भी विरोधी स्वर को अर्ध रात्रि मे डंडा-वंदन के द्वारा कुशलता से शाँत करने मे कुशल थे, चाहे वो  महल में हो या रामलीला मैदान में।  उनका पुत्र अश्वत्थामा कुबेर का यान चुरा कर हाई फ्लायर बना, और अकसर यवन देशों में हिमपात का आनंद लेते हुए अपनी तस्वीर नगर पट्टिका पर टाँग कर जनता का जी जलाया करता था।


हाई फ्लायर अश्वत्थामा अपने चित्रों पर किसी टिप्पणी को पसंद नही करता था, और टिप्पणी करने वाले को कारागृह मे डलवा देते थे। महाबली अश्वत्थामा को सुपरमैन पोज मे तस्वीर खिँचाने का ख़ासा शौक़ था परंतु बहुत इच्छा होने पर भी लोक मर्यादा के अनुसार वह अंतर्वस्त्र बाहर नहीं पहनते थे। इस विषय पे महृषि विदुर ने 66 A का नियम बना कर बाल -द्रोण के बहुत सहायक रहे। 

युधिष्ठिर और पाँडव, जो कि ब्राह्मणवादी, लम्पेन फ़्रिंज तत्व थे, उन्होंने ख़ानदानी कौरवों से पाँच गाँव माँगे। बताया जाता है कि पाँडवो ने शहर की बजाय गाँव इसलिए माँगे क्योंकि उन्हें रूरल विद्युतीकरण का अभूतपूर्व चाव था। 


नकुल और सहदेव संघी गोरक्षक थे। वे एमनेस्टी या पेटा जैसे किसी प्रतिष्ठित संस्था से जुड़ कर अच्छा कैरियर बना सकते थे किन्तु अंग्रेज़ी का ज्ञान ना होने के कारण फ़्रिंज हो कर रह गए। सो डाउन मार्केट !


आगे की कथा हमें गुटखे वाले अंकिल के पुत्र, हमारे सायकिल सखा ने बताई। बहरहाल युधिष्ठिर अपना पाँच गाँव प्राप्त कर के उनमें बिजली-उजली दे के राज चलाने लगे। सुयोधनवा गाँधार वग़ैरह सब जगह कृपाचार्य के द्वारा चिट्ठी लिखा के जुधिस्ठिर का हुक्का पानी बंद करवा दिहिस।

फासिस्ट जुधिष्ठरवा अपन गाँव मे जबरजस्त बिकास ठेला और सब को बोला कि जे देखो इंद्रप्रस्थ माडल। उसमें भी सबसे बड़ा गड़बड़ ये किया कि कृष्ण को साथ लेके जादौ भोट में सेंध मार लिहिस। किन्तु भले ही जैसे अम्बेडकर को मोदी जी ने अपनी ओर कर लिया, दंगाई सेना हमारे साथ है, वैसे ही सुयोधन ने कृष्ण की सेना को अपनी और किया। 

ख़ैर, आगे जो है युद्ध हुआ। कर्ण के प्रसंग को ऊना की भाँति आगे लाकर दलित नेरेटिव खींचा गया। और भाई के भाई से संघर्ष की मस्त पृष्ठभूमि खिंची। संजय भाई टैक्स दबा के चुराए, पर द्रोण जी ने उन्हें दस टका पर डील के अंतर्गत एमनेस्टी दे कर ,  प्रेस फ़्रीडम के नाम पर युद्ध के कवरेज का एक्सक्लूसिव राईट दिया।

इसके आगे की कथा, गुहा जी के अनुसार इतिहास से संघी छेड़ छाड का नतीजा है। सूत्र बताते हैं कि वास्तव मे युद्ध मे पाँडवो की हार हुई। धर्म की हार की वजह से ही आज शैम्पू स्वामी निद्रा में “मैं हिंदू क्यूँ हूँ” कह कह कर विलाप करते हैं। उनकी इसी दुःख की वजह से चिर-चिंतित मुद्रा उन्हें बुद्धिजीवी और महिलाओं में आकर्षक बनाती है। 

युद्ध के लिए सुयोधन ने विदेशों में जा के भाषण दिए और गाँधार से इस्लामिक सेना बुलाई गई। पाँडवों के ठाकुर-यादव समीकरण के तोड़ में राजमाता गाँधारी ने दलित-मुस्लिम समीकरण कर्ण के साथ ख़िलजी को बिठा कर सेट किया। यही समीकरण आज भी भारत वर्ष में हमारे काम आता है।

मुझे लगता है कि मॉमा भारत पर राज करने के इस पौराणिक फ़ार्मूले की खोज मे लाला रामदेव से और उपयोग में माता गाँधारी से कम नहीं है। फ़ार्मुला आज भी सौ टका कामयाब है ।

युद्ध के अंत में कारण भी   कुरुवंश का शासन शाट वर्षों के लिए स्थापित होता है, और भ्रष्ट्राचार्य के राष्ट्रीय स्वभाव की नींव पड़ी। 

अंत मे दलित कर्ण को बोध होता है कि वह अपने परिवार से ही लड़ रहा था। तब तक परंपरा और इतिहास का कवच कुँडल खो कर कर्ण परलोक सिधार जाता है और भारत में प्रथम इस्लामिक सल्तनत नींव पड़ती है। 


यही महाभारत का सत्य था जो सिर्फ कांग्रेस को पता है। संघी इतिहासकारों ने इसी सत्य को छुपाने के लिए १००० वर्ष पूर्व हुए  महाभारत को ६०००-७००० साल पहले का बताया। ये संघी झूठ है। हम आज भी कर्ण  और बाक़ी पांडवों के बीच भेद बना कर, गांधार की भाँति विदेशी समर्थन पा कर, एक युद्ध की स्थिति बना के सत्ता में आ सकते हैं। 



Comments

Popular posts from this blog

पुस्तक समीक्षा - मैं मुन्ना हूँ - लेखक - मनीष श्रीवास्तव

  जिस प्रकार वनस्पति घी डालडा होता है , जैसे प्रतिलिपि ज़ेरॉक्स होती है , मनीष श्रीवास्तव जी श्रीमान जी होते हैं। कम लोगों को पाठकों का इतना स्नेह प्राप्त होता है , जो उनके कृतित्व एवं लेखन से आगे निकल जाता है। इसका कारण उनके लेखन में   सत्य का प्रतिबिम्ब परिलक्षित होना होता है जो पाठक ने उनके व्यक्तित्व में देखा सुना हो। लेखन मेरी दृष्टि में वह माध्यम होता है जिसके द्वारा अपने सत्य को वह कपोल कल्पना का आवरण पहना कर सार्वजनिक कर देता है और आत्मा को एक पिशाच के बोझ से मुक्त कर पाता है। कलम के माध्यम से लेखक वह कहने का साहस जुटा पाता है जिसे अन्यथा वह संभवतः न कह पाए।जब कोई कृति यह कर पाती है तो वह न केवल लेखक की आत्मा के पिशाच हटाती है वरन पाठक की आत्मा के धागों पर लगी गिरहें भी खोल देती है और उसके मानस को मुक्त कर देती है।   इस दृष्टि से मनीष की यह पुस्तक " मैं मुन्ना हूँ " अपने दायित्व का पूर्णता से निर्वाह करती ...

Holy Cow!! Indian Media and the Reporting of Riots

A man walks into metro station, shoot himself. The story is a footnote on some inside pages of the newspaper. Even if someone reads it, it is security lapse which stands out. The dead doesn’t evoke attention, let alone sympathy. Without personalization, it is a lame news. I am not a journalist. I am not even a student of journalism in proper sense. If I go by the wise words by Anne Lamott , and analyze the reports, the intent and interest of the journalist stands open for scrutiny. A murder in Dadri, sad as it is, outcome of rumor or fact, is reported way differently from the way, the gory murder of a reporter in same state or killing of a soldier in same state is reported. Annie Lamott tells us that we need to be presented with the actors in a story with human perspective, that what they were as human beings, beyond a statistics or a name. We know the man murdered in Dadri was doing errands for the village, a soft-spoken man, who, with hard work did well to place his kids in...

Why Teaching Kids Read Early Makes Sense?

Picture Courtesy- GettyImages I am an only child, though not a child anymore. My childhood went in search of friendships outside the home, and waiting for the evening to come by to immerse into those rare moments of camaraderie. Our days, the Pre-Appu childhood, was largely supervised by our parents. I do not much remember visiting my friend’s place in childhood. Much unlike my daughter and her friends who keep meeting up in their homes. My friends were kids of my father’s colleagues and we met when they met. Friendships were formed and finished in the children park.  The interspersed period of loneliness was filled up by books. It was from Comics to pocket-books to Geeta Press to even, Indian Classics like Ramayana and Mahabharata . They filled up my days of solitude with rare happiness. I was called introvert and adults left me alone. It was an arrangement which we both liked. There was no other arrangement in the view. For some reasons, parents those days did not appr...